shahil khan

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छोटे छोटे सवाल –९

और जैसे कोई जालिम मास्टर छोटे विद्यार्थियों की कक्षा में चिल्लाकर हुक्म दे, 'चुप रहो' और निःशब्द शान्ति छा जाए-कुछ उसी तरह की निस्तब्धता उस हॉल में छा गई। डरे हुए बच्चे जैसे अपनी कापी-किताब टटोलने लगते हैं वैसे ही सब लोग अपने कागज-पत्र और सर्टिफिकेट देखने लगे। सबको राजेश्वर ठाकुर की डेस्क पर रखी बन्द मुट्ठी में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। मगर कोई कुछ नहीं बोला। सत्यव्रत को लगा कि उसी के कारण वातावरण में इतनी कटुता आ गई है और अब उसे ही इसके निराकरण के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए।

इस खामोशी का अहसास शायद राजेश्वर ठाकुर को भी हुआ और वह एक हल्की-सी बेमानी हँसी यूँ ही हँस दिया। मगर और उम्मीदवारों को वह हँसी भी चंगेज के उस अटहास-जैसी लगी जो उसने भारत की गलियों-सड़कों में खून की नदियाँ बहाकर किया था। आशंका और आतंकग्रस्त सब अपने-अपने भविष्य के अन्धकार में खो गए। जहाँ से चले थे वहीं जा पहुँचे। लगा जैसे अभी-अभी सब उम्मीदवार आकर उस कमरे में इकठे हुए हों। अपरिचय का मौन सबके बीच हो। अभी थोड़ी ही देर में सब एक-दूसरे से घुल-मिल जाएँगे। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब अपनी-अपनी व्यस्तता को बढ़ाने की कोशिश करने लगे। कोई अपनी 'मार्क-शीट' ढूँढने लगा तो कोई 'डिग्री'।

"ईश्वर जाने मेरे करेक्टर सर्टिफिकेट कहाँ चले गए।' यह वाक्य पाठक ने माथर से इतने धीरे से कहा कि माथुर ने कोई उत्तर नहीं दिया। केशव ने असरार से धीरे से जाने क्या बात की। पर उससे भी खामोशी कम नहीं हुई। एक बोझिल -सा अदृश्य जाल सबके ऊपर पड़ा था और सब जैसे उसके कोनों को कसकर पकड़े थे। सहसा सत्यव्रत ने उसका एक कोना छोड़ दिया; बोला, "राजेश्वर भाई ने ठीक ही कहा है। मुझे पहले अंग्रेजी लेकर बी.ए. कर लेना चाहिए, तभी बात बनेगी।" "वही तो।" राजेश्वर ठाकुर ने समझौते का भाव विस्तीर्ण करते हुए कहा, "वरना सत्यव्रतजी के टैलेंट में किसे शक है !"

दो-तीन बार गला साफ़ करने के बहाने खाँसकर राजेश्वर ने खामोशी को तोड़ दिया। फिर जेब से कैंची की डिब्बी निकालते हुए जाने किसे सम्बोधित करके कहा, "यहाँ सिगरेट पीने की मनाही तो नहीं होगी। ये कोई क्लास-रूम थोड़े ही

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